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प्रेम जीवन का आधार

Posted by Nirbhay Jain Tuesday, November 3, 2009, under | 0 comments


जब एक प्रेम का धागा जुड़ता है,
दिल का कमल तब ही खिलता है

देखता है खुदा भी आसमान से जमीन पर
जब एक दिल दूसरे से बेपनाहा मोहब्बत करता है

सुलगने लगता है तब धरती का सीना भी
जब कोई आसमान बन के बाहो में पिघलता है

लिखी जाती है तब एक दस्तान- -मोहब्बत
तब कही जा कर अमर-प्रेम लोगो के दिलों में उतरता है!!


प्रेम जीवन का आधार है, इसके बिना इंसान मशीन बन जायेगा। प्रेम ही जीवीत और अजीवीत मे फर्क करता है...

मेरे टूटे हुए दिल को, सहारा कौन देगा

Posted by Nirbhay Jain Friday, October 23, 2009, under | 0 comments
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मेरे टूटे हुए दिल को, सहारा कोन देगा
मेरी तूफ़ान में कश्ती, किनारा कोन देगा
यह केसे मोड़ पे लाइ हें, मुजको जिन्दिगानी
अधूरी सी लिखी गयी हँ, क्यूँ मेरी कहानी
हँ अब किस राह पे चलना, इशारा कोन देगा
मेरे टूटे हुए दिल को. सहारा कौन देगा
मैं हूँ और साथ मेरे, अब मेरी तन्हैया हैं
मेरी तकदीर से मुजको, मिली रुस्वयिया हैं
मेरी आँखों को खुशिओं का, नज़ारा कौन देगा
मेरे टूटे हुए दिल को, सहारा कौन देगा

पांच पर्वों का प्रतीक है दिवाली

Posted by Nirbhay Jain Saturday, October 17, 2009, under | 1 comments
त्योहार या उत्सव हमारे सुख और हर्षोल्लास के प्रतीक है जो परिस्थिति के अनुसार अपने रंग-रुप और आकार में भिन्न होते हैं। त्योहार मनाने के विधि-विधान भी भिन्न हो सकते है किंतु इनका अभिप्राय आनंद प्राप्ति या किसी विशिष्ट आस्था का संरक्षण होता है। सभी त्योहारों से कोई न कोई पौराणिक कथा अवश्य जुड़ी हुई है और इन कथाओं का संबंध तर्क से न होकर अधिकतर आस्था से होता है। यह भी कहा जा सकता है कि पौराणिक कथाएं प्रतीकात्मक होती हैं।

कार्तिक मास की अमावस्या के दिन दिवाली का त्योहार मनाया जाता है। दिवाली को दीपावली भी कहा जाता है। दिवाली एक त्योहार भर न होकर, त्योहारों की एक श्रृंखला है। इस पर्व के साथ पांच पर्वों जुड़े हुए हैं। सभी पर्वों के साथ दंत-कथाएं जुड़ी हुई हैं। दिवाली का त्योहार दिवाली से दो दिन पूर्व आरम्भ होकर दो दिन पश्चात समाप्त होता है।

दिवाली का शुभारंभ कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष त्रयोदशी के दिन से होता है। इसे धनतेरस कहा जाता है। इस दिन आरोग्य के देवता धन्वंतरि की आराधना की जाती है। इस दिन नए-नए बर्तन, आभूषण इत्यादि खरीदने का रिवाज है। इस दिन घी के दिये जलाकर देवी लक्ष्मी का आहवान किया जाता है।

दूसरे दिन चतुर्दशी को नरक-चौदस मनाया जाता है। इसे छोटी दिवाली भी कहा जाता है। इस दिन एक पुराने दीपक में सरसों का तेल व पाँच अन्न के दाने डाल कर इसे घर की नाली ओर जलाकर रखा जाता है। यह दीपक यम दीपक कहलाता है।

एक अन्य दंत-कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने इसी दिन नरकासुर राक्षस का वध कर उसके कारागार से 16,000 कन्याओं को मुक्त कराया था।

तीसरे दिन अमावस्या को दिवाली का त्योहार पूरे भारतवर्ष के अतिरिक्त विश्वभर में बसे भारतीय हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। इस दिन देवी लक्ष्मी व गणेश की पूजा की जाती है। यह भिन्न-भिन्न स्थानों पर विभिन्न तरीकों से मनाया जाता है।

दिवाली के पश्चात अन्नकूट मनाया जाता है। यह दिवाली की श्रृंखला में चौथा उत्सव होता है। लोग इस दिन विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर गोवर्धन की पूजा करते हैं।

शुक्ल द्वितीया को भाई-दूज या भैयादूज का त्योहार मनाया जाता है। मान्यता है कि यदि इस दिन भाई और बहन यमुना में स्नान करें तो यमराज निकट नहीं फटकता।

दिवाली भरत में बसे कई समुदायों में भिन्न कारणों से प्रचलित है। दीपक जलाने की प्रथा के पीछे अलग-अलग कारण या कहानियाँ हैं।

राम भक्तों के अनुसार दिवाली वाले दिन अयोध्या के राजा राम लंका के अत्याचारी राजा रावण का वध कर के अयोध्या लौटे थे। उनके लौटने कि खुशी यह पर्व मनाया जाने लगा।

कृष्ण भक्तों की मान्यता है कि इस दिन भगवान श्री कृण्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था। इस नृशंस राक्षस के वध से जनता में अपार हर्ष फैल गया और लोगों ने प्रसन्नतापूर्वक घी के दीये जलाए।

एक पौराणिक कथा के अनुसार विंष्णु ने नरसिंह रुप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था तथा इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात देवी लक्ष्मी व भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए।

जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस भी दीपावली को ही हुआ था।

बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध के अनुयायियों ने 2500 वर्ष पूर्व गौतम बुद्ध के स्वागत में लाखों दीप जला कर दीपावली मनाई थी। दीपावली मनाने के कारण कुछ भी रहे हों परंतु यह निश्चित है कि यह वस्तुत: दीपोत्सव है।

सिक्खों के लिए भी दिवाली महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था और दिवाली ही के दिन सिक्खों के छ्टे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को कारागार से रिहा किया गया था।

नेपालियों के लिए यह त्योहार इसलिए महान है क्योंकि इस दिन से नेपाल संवत में नया वर्ष आरम्भ होता है।

दीवाली (दीपावली) का सार और त्यौहार

Posted by Nirbhay Jain Thursday, October 15, 2009, under | 0 comments
चौदह वर्षका वनवास समाप्त कर जब श्रीरामप्रभु अयोध्या लौटे, तब प्रजाने दीपोत्सव मनाया तबसे दीपावली उत्सव मनाया जाता है दीपावली शब्द दीप आवली (पंक्ति, कतार) इस प्रकार बना है इसका अर्थ है, दीपोंकी पंक्ति अथवा कतार दीपावलीके दिन सर्वत्र दीप लगाए जाते हैं कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी (धनत्रयोदशी / धनतेरस), कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी (नरकचतुर्दशी), अमावस्या (लक्ष्मीपूजन) कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा (बलिप्रतिपदा) ये चार दिन दीपावली मनाई जाती है कुछ लोग त्रयोदशीको दीपावलीमें सम्मिलित कर, शेष तीन दिनोंकी ही दीवाली मनाते हैं वसुबारस भैयादूजके दिन दीपावलीके साथ ही आते हैं, इसी कारण इनका समावेश दीपावलीमें किया जाता है; परंतु वास्तवमें ये त्यौहार भिन्न हैं

कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी (धनत्रयोदशी)

इसीको बोली भाषामें धनतेरस कहा जाता है इस दिन व्यापारी तिजोरीका पूजन करते हैं व्यापारी वर्ष, दीवालीसे दीवालीतक होता है नए वर्षके हिसाबकी बहियां इसी दिन लाते हैं आयुर्वेदकी दृष्टिसे यह दिन धन्वंतरि जयंतीका है वैद्य मंडली इस दिन धन्वंतरि (देवताओंके वैद्य) का पूजन करते हैं लोगोंको नीमके पत्तोंके छोटे टुकडे शक्कर प्रसादके रूपमें बांटते हैं इसका गहरा अर्थ है नीमकी उत्पत्ति अमृतसे हुई है इससे प्रतीत होता है, कि धन्वंतरि अमृतत्वका दाता है

यमदीपदान

यमराजका कार्य है प्राण हरण करना । कालमृत्युसे कोई नहीं बचता और न ही वह टल सकती है; परंतु `किसीको भी अकाल मृत्यु न आए', इस हेतु धनत्रयोदशीपर यमधर्मके उद्देश्यसे गेहूंके आटेसे बने तेलयुक्त (तेरह) दीप संध्याकालके समय घरके बाहर दक्षिणाभिमुख लगाएं । सामान्यत: दीपोंको कभी दक्षिणाभिमुख नहीं रखते, केवल इसी दिन इस प्रकार रखते हैं । आगे दी गई प्रर्थना करें - `ये तेरह दीप मैं सूर्यपुत्रको अर्पण करता हूं । वे मृत्युके पाशसे मुझे मुक्त करें व मेरा कल्याण करें ।'

नरकचतुर्दशी (कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी)

श्रीमद्भागवतपुराणमें ऐसी एक कथा है - नरकासुरका अंत कर कृष्णने सर्व

राजकुमारियोंको मुक्त किया । मरते समय नरकासुरने कृष्णसे वर मांगा, कि `आजके दिन मंगलस्नान करनेवाला नरककी पीडासे बच जाए ।' कृष्णने उसे तदनुसार वर दिया । इस कारण कार्तिक कृष्ण चतुर्दशीको नरकासुर चतुर्दशीके नामसे मानने लगे व इस दिन लोग सूर्योदयसे पूर्व अभ्यंगस्नान करने लगे ।

त्यौहार मनानेकी पद्धति

  • आकाशमें तारोंके रहते, ब्राह्ममुहूर्तपर अभ्यंग (पवित्र) स्नान करते हैं ।

  • यमतर्पण : अभ्यंगस्नानके पश्चात् अपमृत्युके निवारण हेतु यमतर्पणकी विधि बताई गई है । तदुपरांत माता पुत्रोंकी आरती उतारती हैं ।

  • दोपहरमें ब्राह्मणभोजन व वस्त्रदान करते हैं ।

  • प्रदोषकालमें दीपदान, प्रदोषपूजा व शिवपूजा करते हैं ।

कार्तिक अमावस्या (लक्ष्मीपूजन)

सामान्यत: अमावस्या अशुभ मानी जाती है; यह नियम इस अमावस्यापर लागू

नहीं होता है । इस दिन `प्रात:कालमें मंगलस्नान कर देवपूजा, दोपहरमें पार्वणश्राद्ध व ब्राह्मणभोजन एवं संध्याकालमें (प्रदोषकालमें) फूल-पत्तोंसे सुशोभित मंडपमें लक्ष्मी, विष्णु इत्यादि देवता व कुबेरकी पूजा, यह इस दिनकी विधि है ।

लक्ष्मीपूजन करते समय एक चौकीपर अक्षतसे अष्टदल कमल अथवा स्व

स्तिक बनाकर उसपर लक्ष्मीकी मूर्तिकी स्थापना करते हैं । लक्ष्मीके समीप ही कलशपर कुबेरकी प्रतिमा रखते हैं । उसके पश्चात् लक्ष्मी इत्यादि देवताओंको लौंग, इलायची व शक्कर डालकर तैयार किए गए गायके दूधसे बने खोयेका नैवेद्य चढाते हैं । धनिया, गुड, चावलकी खीलें, बताशा इत्यादि पदार्थ लक्ष्मीको चढाकर तत्पश्चात् आप्तेष्टोंमें बांटते हैं । ब्राह्मणोंको व

अन्य क्षुधापीडितोंको भोजन करवाते हैं । रातमें जागरण करते हैं । पुराणोंमें कहा गया है, कि कार्तिक अमावस्याकी रात लक्ष्मी सर्वत्र संचार करती हैं व अपने निवासके लिए यो

ग्य स्थान ढूंढने लगती हैं । जहां स्वच्छता, शोभा व रसिकता दिखती है, वहां तो वह आकर्षित होती ही हैं; इसके अतिरिक्त जिस घरमें चारित्रिक, कर्तव्यदक्ष, संयमी, धर्मनिष्ठ, देवभक्त व क्षमाशील पुरुष एवं गुणवती व पतिकाता स्त्रियां निवास करती हैं, ऐसे घरमें वास करना लक्ष्मीको भाता है ।

बलिप्रतिपदा (कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा)

यह साढेतीन मुहूर्तोंमेंसे अर्द्ध मुहूर्त है । इसे विक्रम संवत्के वर्षारंभदिनके रूपमें मनाया जाता है ।

बलिप्रतिपदाके दिन जमीनपर पंचरंगी रंगोलीद्वारा बलि व उनकी पत्नी विंध्यावलीके चित्र बनाकर उनकी पूजा करनी चाहिए, उन्हें मांस-मदिराका नैवेद्य दिखाना चाहिए । इसके पश्चात् बलिप्रीत्यर्थ दीप व वस्त्रका दान करना चाहिए । इस दिन प्रात:काल अभ्यंगस्नान करनेके उपरांत स्त्रियां अपने पतिकी आरती उतारती हैं । दोपहरमें ब्राह्मणभोजन व मिष्टान्नयुक्त भोजन बनाती हैं । इस दिन गोवर्धनपूजा करनेकी प्रथा है । गोबरका पर्वत बनाकर उसपर दूर्वा व पुष्प डालते हैं व इनके समीप कृष्ण, ग्वाले, इंद्र, गाएं, बछडोंके चित्र सजाकर उनकी भी पूजा करते हैं ।

भैयादूज (यमद्वितीया, कार्तिक शुक्ल द्वितीया)

  • अपमृत्युको टालने हेतु धनत्रयोदशी, नरकचतुर्दशी व यमद्वितीयाके दिन मृत्युके देवता, यमधर्मका पूजन कर उनके चौदह नामोंका तर्पण करनेके लिए कहा गया है । इससे अपमृत्यु नहीं आती । अपमृत्यु निवारणके लिए `श्री यमधर्मप्रीत्यर्थं यमतर्पणं करिष्ये' । ऐसा संकल्प कर तर्पण करना चाहिए ।

  • इस दिन यमराज अपनी बहन यमुनाके घर भोजन करने जाते हैं व उस दिन नरकमें सड रहे जीवोंको वह उस दिनके लिए मुक्त करते हैं ।

इस दिन किसी भी पुरुषको अपने घरपर या अपनी पत्नीके हाथका अन्न नहीं खाना चाहिए । इस दिन उसे अपनी बहनके घर वस्त्र, गहने इत्यादि लेकर जाना चाहिए व उसके घर भोजन करना चाहिए । ऐसे बताया गया है, कि सगी बहन न हो तो किसी भी बहनके पास या अन्य किसी भी स्त्रीको बहन मानकर उसके यहां भोजन करना चाहिए । किसी स्त्रीका भाई न हो, तो वह किसी भी पुरुषको भाई मानकर उसकी आरती उतारे । यदि ऐसा संभव न हो, तो चंद्रमाको भाई मानकर आरती उतारते हैं ।

धनतेरस से जुड़ी रोचक कथा

Posted by Nirbhay Jain , under | 1 comments
आधुनिक युग की तेजी से बदलती जीवन शैली में भी धनतेरस की परम्परा कायम है। समाज के सभी वर्गों के लोग कई महत्वपूर्ण चीजों की खरीदारी के लिए पूरे साल इस पर्व का बेसब्री से इंतजार करते हैं।
पंचांग के अनुसार हर साल कार्तिक कृष्ण की त्रयोदशी के दिन धन्वतरि त्रयोदशी मनायी जाती है। जिसे आम बोलचाल में ‘धनतेरस’ कहा जाता है। यह मूलतः धन्वन्तरि जयंती का पर्व है और आयुर्वेद के जनक धन्वन्तरि के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है।
धनतेरस के दिन नए बर्तन या सोना-चांदी खरीदने की परम्परा है। इस पर्व पर बर्तन खरीदने की शुरआत कब और कैसे हुई, इसका कोई निश्चित प्रमाण तो नहीं है लेकिन ऐसा माना जाता है कि जन्म के समय धन्वन्तरि के हाथों में अमृत कलश था। यही कारण होगा कि लोग इस दिन बर्तन खरीदना शुभ मानते हैं।
आने वाली पीढ़ियां अपनी परम्परा को अच्छी तरह समझ सकें, इसके लिए भारतीय संस्कृति के हर पर्व से जुड़ी कोई न कोई लोककथा अवश्य है। दीपावली से पहले मनाए जाने वाले धनतेरस पर्व से भी जुड़ी एक लोककथा है, जो कई युगों से कही-सुनी जा रही है।
धनतेरस की कथा
पौराणिक कथाओं में धन्वन्तरि के जन्म का वर्णन करते हुए बताया गया है कि देवता और असुरों के समुद्र मंथन से धन्वन्तरि का जन्म हुआ था। वह अपने हाथों में अमृत-कलश लिए प्रकट हुए थे। इस कारण उनका नाम ‘पीयूषपाणि धन्वन्तरि’ विख्यात हुआ। उन्हें विष्णु का अवतार भी माना जाता है।
परम्परा के अनुसार धनतेरस की संध्या को यम के नाम का दीया घर की देहरी पर रखा जाता है और उनकी पूजा करके प्रार्थना की जाती है कि वह घर में प्रवेश नहीं करें और किसी को कष्ट नहीं पहुंचाएं। देखा जाए तो यह धार्मिक मान्यता मनुष्य के स्वास्थ्य और दीर्घायु जीवन से प्रेरित है।
यम के नाम से दीया निकालने के बारे में भी एक पौराणिक कथा है- एक बार राजा हिम ने अपने पुत्र की कुंडली बनवाई, इसमें यह बात सामने आयी कि शादी के ठीक चौथे दिन सांप के काटने से उसकी मौत हो जाएगी। हिम की पुत्रवधू को जब इस बात का पता चला तो उसने निश्चय किया कि वह हर हाल में अपने पति को यम के कोप से बचाएगी। शादी के चौथे दिन उसने पति के कमरे के बाहर घर के सभी जेवर और सोने-चांदी के सिक्कों का ढेर बनाकर उसे पहाड़ का रूप दे दिया और खुद रात भर बैठकर उसे गाना और कहानी सुनाने लगी ताकि उसे नींद नहीं आए।
रात के समय जब यम सांप के रूप में उसके पति को डंसने आया तो वह आभूषणों के पहाड़ को पार नहीं कर सका और उसी ढेर पर बैठकर गाना सुनने लगा। इस तरह पूरी रात बीत गई। अगली सुबह सांप को लौटना पड़ा। इस तरह उसने अपने पति की जान बचा ली। माना जाता है कि तभी से लोग घर की सुख-समृद्धि के लिए धनतेरस के दिन अपने घर के बाहर यम के नाम का दीया निकालते हैं ताकि यम उनके परिवार को कोई नुकसान नहीं पहुंचाए।
भारतीय संस्कृति में स्वास्थ्य का स्थान धन से ऊपर माना जाता रहा है। यह कहावत आज भी प्रचलित है कि “पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में माया” इसलिए दीपावली में सबसे पहले धनतेरस को महत्व दिया जाता है। जो भारतीय संस्कृति के सर्वथा अनुकूल है।
धनतेरस के दिन सोने और चांदी के बर्तन, सिक्के तथा आभूषण खरीदने की परम्परा रही है। सोना सौंदर्य में वृद्धि तो करता ही है, मुश्किल घड़ी में संचित धन के रूप में भी काम आता है। कुछ लोग शगुन के रूप में सोने या चांदी के सिक्के भी खरीदते हैं।
बदलते दौर के साथ लोगों की पसंद और जरूरत भी बदली है इसलिए इस दिन अब बर्तनों और आभूषणों के अलावा वाहन, मोबाइल आदि भी खरीदे जाने लगे हैं। वर्तमान समय में देखा जाए तो मध्यमवर्गीय परिवारों में धनतेरस के दिन वाहन खरीदने का फैशन सा बन गया है। इस दिन ये लोग गाड़ी खरीदना शुभ मानते हैं। कई लोग तो इस दिन कम्प्यूटर और बिजली के उपकरण भी खरीदते हैं।
रीति-रिवाजों से जुड़ा धनतेरस आज व्यक्ति की आर्थिक क्षमता का सूचक बन गया है। एक तरफ उच्च और मध्यम वर्ग के लोग धनतेरस के दिन विलासिता से भरपूर वस्तुएं खरीदते हैं तो दूसरी ओर निम्न वर्ग के लोग जरूरत की वस्तुएं खरीद कर धनतेरस का पर्व मनाते हैं। इसके बावजूद वैश्वीकरण के इस दौर में भी लोग अपनी परम्परा को नहीं भूले हैं और अपने सामर्थ्य के अनुसार यह पर्व मनाते हैं।

पाँच दिनों का त्यौहार


चम चम करती दिवाली
घर घर दीपक जलते हैं
द्वार द्वार सजी रंगोली
रंग अनेक मन हरते हैं
उठती रसोई से सुगंध मनमोहक
लड्डू बर्फी बालूसाही
कितने पकवान कितनी मिठाई
फुलझडी की तड तड संग किलकारियां
फुवारों के संग चकरियां प्यारियां
वो देखो बदमाश हरा बम्ब लाया
कितने जोर का धमाका मचाया
मिलते लोगों से देते बधाई
हर मुख पर खुसी लहराई
चम चम करती लक्ष्मी
संग शारदा गणेश भी लायी
दर्दिरता, अज्ञान, विघ्न हरेंगे
अर्चित हो हम पर अनुग्रह करेंगे
उनके लिए दीप जलाओ
आनंदित हो घर सजाओ
एक मेरी थी प्यारी बेहेना
स्वर्ग में है, कोई उसको कहना
लक्ष्मी संग तुम भी आना
घर में पग फिर से धरना
आँखों से सूरत हटती नहीं
प्यारी अटखेलियाँ बिसरती नहीं
काश तुम संग हमारे होतीं
ऑंखें दीपो में रोतीं
इस्वर उसे सम्बहले रखना
स्वर्ग के सब प्राप्य वास्तु उसको देना.

बेटियाँ...............

Posted by Nirbhay Jain Friday, October 9, 2009, under | 4 comments

बोए जाते है बेटे ,

उग जाती है बेटियाँ.

खाद पानी बेटो को,

और लहलहाती है बेटियाँ.

एवरेस्ट की उचाईयों तक,

धकेले जाते है बेटे.

और चढ़ जाती है बेटियाँ.

रुलाते है बेटे.,

और रोती है बेटियाँ.

कई तरह गिरते है बेटे,

और संभल लेती है बेटियाँ.

सुख के स्वपन दिखाते है बेटे,

जीवन का यथार्थ है बेटियाँ.

जीवन तो बेटो का है,

और मरी जाती है बेटियाँ...............