दीवाली (दीपावली) का सार और त्यौहार

Posted by Nirbhay Jain Thursday, October 15, 2009, under | 0 comments
चौदह वर्षका वनवास समाप्त कर जब श्रीरामप्रभु अयोध्या लौटे, तब प्रजाने दीपोत्सव मनाया तबसे दीपावली उत्सव मनाया जाता है दीपावली शब्द दीप आवली (पंक्ति, कतार) इस प्रकार बना है इसका अर्थ है, दीपोंकी पंक्ति अथवा कतार दीपावलीके दिन सर्वत्र दीप लगाए जाते हैं कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी (धनत्रयोदशी / धनतेरस), कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी (नरकचतुर्दशी), अमावस्या (लक्ष्मीपूजन) कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा (बलिप्रतिपदा) ये चार दिन दीपावली मनाई जाती है कुछ लोग त्रयोदशीको दीपावलीमें सम्मिलित कर, शेष तीन दिनोंकी ही दीवाली मनाते हैं वसुबारस भैयादूजके दिन दीपावलीके साथ ही आते हैं, इसी कारण इनका समावेश दीपावलीमें किया जाता है; परंतु वास्तवमें ये त्यौहार भिन्न हैं

कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी (धनत्रयोदशी)

इसीको बोली भाषामें धनतेरस कहा जाता है इस दिन व्यापारी तिजोरीका पूजन करते हैं व्यापारी वर्ष, दीवालीसे दीवालीतक होता है नए वर्षके हिसाबकी बहियां इसी दिन लाते हैं आयुर्वेदकी दृष्टिसे यह दिन धन्वंतरि जयंतीका है वैद्य मंडली इस दिन धन्वंतरि (देवताओंके वैद्य) का पूजन करते हैं लोगोंको नीमके पत्तोंके छोटे टुकडे शक्कर प्रसादके रूपमें बांटते हैं इसका गहरा अर्थ है नीमकी उत्पत्ति अमृतसे हुई है इससे प्रतीत होता है, कि धन्वंतरि अमृतत्वका दाता है

यमदीपदान

यमराजका कार्य है प्राण हरण करना । कालमृत्युसे कोई नहीं बचता और न ही वह टल सकती है; परंतु `किसीको भी अकाल मृत्यु न आए', इस हेतु धनत्रयोदशीपर यमधर्मके उद्देश्यसे गेहूंके आटेसे बने तेलयुक्त (तेरह) दीप संध्याकालके समय घरके बाहर दक्षिणाभिमुख लगाएं । सामान्यत: दीपोंको कभी दक्षिणाभिमुख नहीं रखते, केवल इसी दिन इस प्रकार रखते हैं । आगे दी गई प्रर्थना करें - `ये तेरह दीप मैं सूर्यपुत्रको अर्पण करता हूं । वे मृत्युके पाशसे मुझे मुक्त करें व मेरा कल्याण करें ।'

नरकचतुर्दशी (कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी)

श्रीमद्भागवतपुराणमें ऐसी एक कथा है - नरकासुरका अंत कर कृष्णने सर्व

राजकुमारियोंको मुक्त किया । मरते समय नरकासुरने कृष्णसे वर मांगा, कि `आजके दिन मंगलस्नान करनेवाला नरककी पीडासे बच जाए ।' कृष्णने उसे तदनुसार वर दिया । इस कारण कार्तिक कृष्ण चतुर्दशीको नरकासुर चतुर्दशीके नामसे मानने लगे व इस दिन लोग सूर्योदयसे पूर्व अभ्यंगस्नान करने लगे ।

त्यौहार मनानेकी पद्धति

  • आकाशमें तारोंके रहते, ब्राह्ममुहूर्तपर अभ्यंग (पवित्र) स्नान करते हैं ।

  • यमतर्पण : अभ्यंगस्नानके पश्चात् अपमृत्युके निवारण हेतु यमतर्पणकी विधि बताई गई है । तदुपरांत माता पुत्रोंकी आरती उतारती हैं ।

  • दोपहरमें ब्राह्मणभोजन व वस्त्रदान करते हैं ।

  • प्रदोषकालमें दीपदान, प्रदोषपूजा व शिवपूजा करते हैं ।

कार्तिक अमावस्या (लक्ष्मीपूजन)

सामान्यत: अमावस्या अशुभ मानी जाती है; यह नियम इस अमावस्यापर लागू

नहीं होता है । इस दिन `प्रात:कालमें मंगलस्नान कर देवपूजा, दोपहरमें पार्वणश्राद्ध व ब्राह्मणभोजन एवं संध्याकालमें (प्रदोषकालमें) फूल-पत्तोंसे सुशोभित मंडपमें लक्ष्मी, विष्णु इत्यादि देवता व कुबेरकी पूजा, यह इस दिनकी विधि है ।

लक्ष्मीपूजन करते समय एक चौकीपर अक्षतसे अष्टदल कमल अथवा स्व

स्तिक बनाकर उसपर लक्ष्मीकी मूर्तिकी स्थापना करते हैं । लक्ष्मीके समीप ही कलशपर कुबेरकी प्रतिमा रखते हैं । उसके पश्चात् लक्ष्मी इत्यादि देवताओंको लौंग, इलायची व शक्कर डालकर तैयार किए गए गायके दूधसे बने खोयेका नैवेद्य चढाते हैं । धनिया, गुड, चावलकी खीलें, बताशा इत्यादि पदार्थ लक्ष्मीको चढाकर तत्पश्चात् आप्तेष्टोंमें बांटते हैं । ब्राह्मणोंको व

अन्य क्षुधापीडितोंको भोजन करवाते हैं । रातमें जागरण करते हैं । पुराणोंमें कहा गया है, कि कार्तिक अमावस्याकी रात लक्ष्मी सर्वत्र संचार करती हैं व अपने निवासके लिए यो

ग्य स्थान ढूंढने लगती हैं । जहां स्वच्छता, शोभा व रसिकता दिखती है, वहां तो वह आकर्षित होती ही हैं; इसके अतिरिक्त जिस घरमें चारित्रिक, कर्तव्यदक्ष, संयमी, धर्मनिष्ठ, देवभक्त व क्षमाशील पुरुष एवं गुणवती व पतिकाता स्त्रियां निवास करती हैं, ऐसे घरमें वास करना लक्ष्मीको भाता है ।

बलिप्रतिपदा (कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा)

यह साढेतीन मुहूर्तोंमेंसे अर्द्ध मुहूर्त है । इसे विक्रम संवत्के वर्षारंभदिनके रूपमें मनाया जाता है ।

बलिप्रतिपदाके दिन जमीनपर पंचरंगी रंगोलीद्वारा बलि व उनकी पत्नी विंध्यावलीके चित्र बनाकर उनकी पूजा करनी चाहिए, उन्हें मांस-मदिराका नैवेद्य दिखाना चाहिए । इसके पश्चात् बलिप्रीत्यर्थ दीप व वस्त्रका दान करना चाहिए । इस दिन प्रात:काल अभ्यंगस्नान करनेके उपरांत स्त्रियां अपने पतिकी आरती उतारती हैं । दोपहरमें ब्राह्मणभोजन व मिष्टान्नयुक्त भोजन बनाती हैं । इस दिन गोवर्धनपूजा करनेकी प्रथा है । गोबरका पर्वत बनाकर उसपर दूर्वा व पुष्प डालते हैं व इनके समीप कृष्ण, ग्वाले, इंद्र, गाएं, बछडोंके चित्र सजाकर उनकी भी पूजा करते हैं ।

भैयादूज (यमद्वितीया, कार्तिक शुक्ल द्वितीया)

  • अपमृत्युको टालने हेतु धनत्रयोदशी, नरकचतुर्दशी व यमद्वितीयाके दिन मृत्युके देवता, यमधर्मका पूजन कर उनके चौदह नामोंका तर्पण करनेके लिए कहा गया है । इससे अपमृत्यु नहीं आती । अपमृत्यु निवारणके लिए `श्री यमधर्मप्रीत्यर्थं यमतर्पणं करिष्ये' । ऐसा संकल्प कर तर्पण करना चाहिए ।

  • इस दिन यमराज अपनी बहन यमुनाके घर भोजन करने जाते हैं व उस दिन नरकमें सड रहे जीवोंको वह उस दिनके लिए मुक्त करते हैं ।

इस दिन किसी भी पुरुषको अपने घरपर या अपनी पत्नीके हाथका अन्न नहीं खाना चाहिए । इस दिन उसे अपनी बहनके घर वस्त्र, गहने इत्यादि लेकर जाना चाहिए व उसके घर भोजन करना चाहिए । ऐसे बताया गया है, कि सगी बहन न हो तो किसी भी बहनके पास या अन्य किसी भी स्त्रीको बहन मानकर उसके यहां भोजन करना चाहिए । किसी स्त्रीका भाई न हो, तो वह किसी भी पुरुषको भाई मानकर उसकी आरती उतारे । यदि ऐसा संभव न हो, तो चंद्रमाको भाई मानकर आरती उतारते हैं ।

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