घूंघट

Posted by Nirbhay Jain Friday, September 4, 2009, under | 4 comments
उनकी सेवा
करते करते
थकती नहीं वो
दिन से लेकर
रात तक हर रोज़
उनकी स्थिति
उनकी सम्पन्नता
उनका वैभव
दिखाने को
लाद लेती है
भारी भारी गहने
और कपडे
खूब करती है श्रृंगार
प्रसन्न होकर प्रतिदिन
पूछा जाता है जब
परिचय उसका
बताती है वो
गोत्र उन्ही का
संतान भी उसकी
कहलाती है उनकी
घर, ज़मीन , संपत्ति अंहकार
इन सब से जुड़े
उनके अपराधों को
झेलती है वो -
फिर भी उन्हें
ढकने के लिए
छिपा लेती है
अपना ही मुख
घूंघट की ओट में

(रक्षा शुक्ला )

One Response to "घूंघट"

  1. ओम आर्य Says:

    वाह क्या बात कह दी आपने ........यह एक खुबसूरती भी है और बिड्म्बना भी........एक औरत की......गहरे भाव!

  1. raj Says:

    फिर भी उन्हें
    ढकने के लिए
    छिपा लेती है
    अपना ही मुख
    घूंघट की ओट में..kitni khoobsurati se kitna bada sach kaha aapne...